कहता हैं कोई, की मूर्ति में ईश्वर क्या, उसका अंश नहीं,
कैसा आग्रह, जिसमें बचा अब कोई मनुष्यत्व नहीं?
इस बात को समझाने, मनवाने; काटो-मारो की घोषणा,
बस अब दूसरे को काफिर कहने की शेष बची एषणा ।
क्या यही इस रचना के पीछे होगी ईश्वर की संकल्पना?
एक बेटा दूसरे को मारे,बस यही बाकी रही थी देखना !
अगर विज्ञान मानता कण कण मैं है चेतन का तत्त्व,
तो सोचो, समजो, फिर गलत क्यों मूर्ति में मानना सत्त्व।
मनोविज्ञान भी मानता मन जिसमें हो पाता है स्थिर,
उस बात के गुण उठाकर हो जाती उसकी प्रज्ञा स्थित।
वह जो अजन्मा है, उसकी मूर्ति उसीकी विडंबना है,
इसी उच्च भावना व समज से गर विरोध है, ठीक है।
ना आदि ना अंत, फिर भी वह अपने बीच समाया
उसे ढूंढना, उसे पाना, यही खेल कहलाता माया।
मुझे वह मूर्ति में मिलता, तुझे वह ऐसे ही मिलता,
यह बात समझकर अब हम दोनों को है संभलना।
ऐसा तो नहीं, कहीं, मैं पूजता इसलिए विश्वास नहीं,
जिद को छोडो, क्यों कि वह है सर्वत्र, बात यही सही।
उससे गर आगे बढकर कहूँ तो वह वहां भी है,
जहाँ हम नहीं,
जहाँ हम नहीं,
जहाँ हम नहीं ।
वाह! सुंदर एवं सरल कविता!
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Tysm Bhai
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Superb!!!!
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Tysm Niyatiji
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Please Add and Translate to English
Ameet Ji.. 😊
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Will try
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Nice smple words
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Tysm
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मेरी चाहत एक साथ रहने की,
तेरी जिद्द एक जात करने की,
हम एक हैं तेरे वगैर वजूद नही मेरा,
ये बात तुझे बताऊँ कैसे,
गुलाब,चमेली दोनों फूल ही हैं
ये बात तुझे समझाऊँ कैसे।
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Wah Dada
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धन्यवाद भाई जी। बहुत ही खूबसूरत कविता। वो अगर सर्वत्र है तो मूरत में क्यों नही।?
मेरा जिससे नेह जुड़ा
तुम उसको कहते आडम्बर?
तुम जो कहते वही सत्य क्यों,
कैसे वो ना आडम्बर?
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Wah Dada… Bahut Badhiya
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🙏🙏
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Good. Kobi always speaks the truth. Thank you.
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वहुत सुन्दर
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क्या बात है
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Dhanyawaad…
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